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घृ॒तं मि॑मिक्षे घृ॒तम॑स्य॒ योनि॑र्घृ॒ते श्रि॒तो घृ॒तम्व॑स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धमाव॑ह मा॒दय॑स्व॒ स्वाहा॑कृतं वृषभ वक्षि ह॒व्यम् ॥८८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ॒तम्। मि॒मि॒क्षे॒। घृ॒तम्। अ॒स्य॒। योनिः॑। घृ॒ते। श्रि॒तः। घृ॒तम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धम्। अ॒नु॒स्व॒धमित्य॑नुऽस्व॒धम्। आ। व॒ह॒। मा॒दय॑स्व॒। स्वाहा॑कृत॒मिति॒ स्वाहा॑ऽकृतम्। वृ॒ष॒भ॒। व॒क्षि॒। ह॒व्यम् ॥८८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:88


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को अग्नि कहाँ-कहाँ खोजना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे समुद्र में जानेवाले मनुष्य ! आप (घृतम्) जल को (मिमिक्षे) सींचना चाहो (उ) वा (अस्य) इस आग का (घृतम्) घी (योनिः) घर है, जो (घृते) घी में (श्रितः) आश्रय को प्राप्त हो रहा है वा (घृतम्) जल (अस्य) इस आग का (धाम) धाम अर्थात् ठहरने का स्थान है, उस अग्नि को तू (अनुष्वधम्) अन्न की अनुकूलता को (आ, वह) पहुँचा। हे (वृषभ) वर्षानेवाले जन ! तू जिस कारण (स्वाहाकृतम्) वेदवाणी से सिद्ध किये (हव्यम्) लेने योग्य पदार्थ को (वक्षि) चाहता वा प्राप्त होता है, इसलिये हम लोगों को (मादयस्व) आनन्दित कर ॥८८ ॥
भावार्थभाषाः - जितना अग्नि जल में है, उतना जलाधिकरण अर्थात् जल में रहनेवाला कहाता है, जैसे घी से अग्नि बढ़ता है, वैसे जल से सब पदार्थ बढ़ते हैं और अन्न अनुकूल घी आनन्द करानेवाला होता है, इससे उक्त व्यवहार की चाहना सब लोगों को करनी चाहिये ॥८८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैरग्निः क्व क्वान्वेषणीय इत्याह ॥

अन्वय:

(घृतम्) उदकम् (मिमिक्षे) सिञ्चितुमिच्छ (घृतम्) जलम् (अस्य) (योनिः) गृहम् (घृते) (श्रितः) (घृतम्) उदकम् (उ) वितर्के (अस्य) पावकस्य (धाम) अधिकरणम् (अनुष्वधम्) स्वधान्नस्यानुकूलम् (आ) (वह) प्रापय (मादयस्व) हर्षयस्व (स्वाहाकृतम्) वेदवाणीनिष्पादितम् (वृषभ) यो वर्षति तत्सम्बुद्धौ (वक्षि) कामयसे प्राप्नोषि वा (हव्यम्) होतुमादातुमर्हम् ॥८८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे समुद्रयायिन् ! त्वं घृतं मिमिक्षे उ अस्याग्नेर्घृतं योनिरस्ति, यो घृते श्रितो घृतमस्य धाम तमग्निमनुष्वधमावह। हे वृषभ ! त्वं यतः स्वाहाकृतं हव्यं वक्षि, तेनास्मान् मादयस्व ॥८८ ॥
भावार्थभाषाः - यावानग्निर्जलेऽस्ति तावान् जलाधिकरण उच्यते, यथाज्येन वह्निर्वर्धते तथा जलेन सर्वे पदार्था वर्धन्ते। अन्नमनुकूलमाज्यं चानन्दकारि जायते, तस्मात् सर्वैरेतत्कमनीयम् ॥८८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जल हेही अग्नीचे निवासस्थान असते, त्याचे धाम असते. ज्याप्रमाणे तुपाने अग्नी प्रदीप्त होतो तसे जलातही पदार्थांची वाढ होते. तुपामुळे अन्नाची रुची वाढून ती आनंददायक ठरते त्यासाठी वरील गोष्टींची आवड सर्वांमध्ये निर्माण झाली पाहिजे.